गाड़ा बिरादरी मेरठ के युवाओं ने मदरसा खादिमुल उलूम बागोवाली-बझेड़ी की तर्ज पर इकला खानपुर मदरसा में हाई स्कूल शुरू करने की मांग उठाई।
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इस्लामिक शिक्षामदरसा खादिमुल उलूम मुजफ्फरनगर |
मेरठ, 24 मार्च 2025: गाड़ा बिरादरी मेरठ के युवा अपने बच्चों के लिए बेहतर भविष्य की तलाश में हैं। उन्होंने इकला खानपुर के मदरसा मदीनातूल उलूम में हाई स्कूल शुरू करने की मांग उठाई है। उनकी प्रेरणा है मुजफ्फरनगर का मदरसा खादिमुल उलूम बागोवाली-बझेड़ी, जहां इस्लामिक तालीम के साथ-साथ कंप्यूटर साइंस और अरबी-अंग्रेजी डिप्लोमा जैसे कोर्स चलते हैं।
गाड़ा बिरादरी के युवा चाहते हैं कि उनका मदरसा भी इस्लामिक शिक्षा के साथ दुनियावी और तकनीकी ज्ञान दे, ताकि बच्चे आने वाले वक्त में हर क्षेत्र में आगे रहें। यह मांग न सिर्फ शिक्षा का दायरा बढ़ाने की कोशिश है, बल्कि एक ऐसी पीढ़ी तैयार करने का सपना भी है जो हर चुनौती के लिए तैयार हो।
आइये जानते है मदरसा ख़ादिमुल उलूम के बारे मे, जो अपनी तकनिकी शिक्षा के प्रारम्भ को लीकर मेरठ मे बना चर्चा का विषय
मुजफ्फरनगर के पास बागोवाली और बझेड़ी गांवों के बीच बसा मदरसा खादिमुल उलूम कोई साधारण जगह नहीं है। करीब 90 साल पहले, 1932 में शुरू हुआ यह मदरसा आज भी इस्लामिक शिक्षा का एक चमकता सितारा है। उस दौर में जब अंग्रेजी राज का साया मुस्लिम समाज पर भारी पड़ रहा था, तब कुछ बड़े विद्वानों ने इसे शुरू किया था ताकि हमारी आने वाली नस्लें अपनी जड़ों से जुड़ी रहें। और आज भी यह अपनी उस मिट्टी की खुशबू को बरकरार रखे हुए है।
कैसे पड़ी इसकी नींव?
बात 1932 की है, जब मौलाना मोहम्मद अब्दुल कादिर रायपुरी, मौलाना मोहम्मद इलियास (जिन्होंने तब्लीगी जमात की शुरुआत की), अल-हज डिप्टी अब्दुर रहीम और शैखुल हदीस मौलाना मोहम्मद जकारिया जैसे बड़े नाम एक साथ आए। इन लोगों का सपना था कि इस्लामिक तालीम और तहजीब को जिंदा रखा जाए। उस वक्त दारुल उलूम देवबंद का असर चारों तरफ फैल रहा था, और इसी से प्रेरणा लेकर इस मदरसे की नींव रखी गई। तब से लेकर आज तक यह मुस्लिम बच्चों को सही रास्ता दिखाने का काम कर रहा है।
बात 1932 की है, जब मौलाना मोहम्मद अब्दुल कादिर रायपुरी, मौलाना मोहम्मद इलियास (जिन्होंने तब्लीगी जमात की शुरुआत की), अल-हज डिप्टी अब्दुर रहीम और शैखुल हदीस मौलाना मोहम्मद जकारिया जैसे बड़े नाम एक साथ आए। इन लोगों का सपना था कि इस्लामिक तालीम और तहजीब को जिंदा रखा जाए। उस वक्त दारुल उलूम देवबंद का असर चारों तरफ फैल रहा था, और इसी से प्रेरणा लेकर इस मदरसे की नींव रखी गई। तब से लेकर आज तक यह मुस्लिम बच्चों को सही रास्ता दिखाने का काम कर रहा है।
कहां है यह मदरसा?
अगर आप मुजफ्फरनगर शहर से 5 किलोमीटर उत्तर की तरफ जाएंगे और दिल्ली-हरिद्वार हाईवे से थोड़ा हटकर 1 किलोमीटर पूर्व में चलेंगे, तो आपको यह मदरसा मिलेगा। देवबंद से यह करीब 25 किलोमीटर दूर है। सड़कें अच्छी हैं, तो बारिश हो या धूप, यहां पहुंचना मुश्किल नहीं। बागोवाली और बझेड़ी के बीच बसा यह इलाका शांत और सुकून भरा है।
अगर आप मुजफ्फरनगर शहर से 5 किलोमीटर उत्तर की तरफ जाएंगे और दिल्ली-हरिद्वार हाईवे से थोड़ा हटकर 1 किलोमीटर पूर्व में चलेंगे, तो आपको यह मदरसा मिलेगा। देवबंद से यह करीब 25 किलोमीटर दूर है। सड़कें अच्छी हैं, तो बारिश हो या धूप, यहां पहुंचना मुश्किल नहीं। बागोवाली और बझेड़ी के बीच बसा यह इलाका शांत और सुकून भरा है।
यहां क्या-क्या सिखाया जाता है?
मदरसा खादिमुल उलूम सिर्फ कुरान और हदीस की तालीम तक सीमित नहीं है। यहां तो ढेर सारे कोर्स हैं, जो पुरानी और नई दुनिया को जोड़ते हैं। मिसाल के तौर पर, बच्चे कुरान को पढ़ना और याद करना सीखते हैं—नजरा और हिफ्ज के कोर्स इसके लिए हैं। फिर 6 साल का फाजिलत कोर्स है, जो इस्लामिक स्टडीज में ग्रेजुएशन की तरह है। इफ्ता कोर्स उन लोगों के लिए है जो फतवे देने की ट्रेनिंग लेना चाहते हैं। इसके अलावा अरबी साहित्य और फारसी भाषा भी पढ़ाई जाती है।
मदरसा खादिमुल उलूम सिर्फ कुरान और हदीस की तालीम तक सीमित नहीं है। यहां तो ढेर सारे कोर्स हैं, जो पुरानी और नई दुनिया को जोड़ते हैं। मिसाल के तौर पर, बच्चे कुरान को पढ़ना और याद करना सीखते हैं—नजरा और हिफ्ज के कोर्स इसके लिए हैं। फिर 6 साल का फाजिलत कोर्स है, जो इस्लामिक स्टडीज में ग्रेजुएशन की तरह है। इफ्ता कोर्स उन लोगों के लिए है जो फतवे देने की ट्रेनिंग लेना चाहते हैं। इसके अलावा अरबी साहित्य और फारसी भाषा भी पढ़ाई जाती है।
लेकिन जो बात इसे खास बनाती है, वो है आधुनिक पढ़ाई का मेल। यहां दो साल का एंग्लो-अरबी डिप्लोमा है, जो उलमा के लिए बनाया गया है। साथ ही कंप्यूटर डिप्लोमा भी है, ताकि बच्चे आज के जमाने के साथ कदम मिला सकें। छोटे बच्चों के लिए प्राइमरी और जूनियर हाई स्कूल की पढ़ाई भी चलती है।
कौन चलाता है इसे?
मदरसे को एक 30 लोगों का सलाहकार बोर्ड चलाता है, जिसमें अध्यक्ष, प्रबंधक और रेक्टर जैसे लोग शामिल हैं। पढ़ाई की जिम्मेदारी हेडमास्टर के कंधों पर होती है। ढेर सारे टीचर हैं जो बच्चों को दिन-रात मेहनत से पढ़ाते हैं। देश के कोने-कोने से बच्चे यहां आते हैं, और इसकी शोहरत दूर-दूर तक फैली है।
मदरसे को एक 30 लोगों का सलाहकार बोर्ड चलाता है, जिसमें अध्यक्ष, प्रबंधक और रेक्टर जैसे लोग शामिल हैं। पढ़ाई की जिम्मेदारी हेडमास्टर के कंधों पर होती है। ढेर सारे टीचर हैं जो बच्चों को दिन-रात मेहनत से पढ़ाते हैं। देश के कोने-कोने से बच्चे यहां आते हैं, और इसकी शोहरत दूर-दूर तक फैली है।
क्या है इसकी खास बात?
पिछले 90 सालों में इस मदरसे ने हजारों बच्चों की जिंदगी संवारी है। यह परंपरा और तरक्की का एक अनोखा संगम है। सोशल मीडिया पर भी इसकी झलक मिलती है—लोग इसके बारे में बात करते हैं, तस्वीरें शेयर करते हैं। यह सिर्फ किताबी इल्म नहीं देता, बल्कि समाज को बेहतर बनाने की कोशिश भी करता है।
पिछले 90 सालों में इस मदरसे ने हजारों बच्चों की जिंदगी संवारी है। यह परंपरा और तरक्की का एक अनोखा संगम है। सोशल मीडिया पर भी इसकी झलक मिलती है—लोग इसके बारे में बात करते हैं, तस्वीरें शेयर करते हैं। यह सिर्फ किताबी इल्म नहीं देता, बल्कि समाज को बेहतर बनाने की कोशिश भी करता है।
आज भी जिंदा है यह रोशनी
मदरसा खादिमुल उलूम बागोवाली बझेड़ी आज भी वही पुराना जोश लिए खड़ा है। यह बच्चों को न सिर्फ मजहब की बातें सिखाता है, बल्कि उन्हें आज के दौर में आगे बढ़ने की ताकत भी देता है। यह एक ऐसा दीया है, जो 90 साल से जल रहा है और आने वाले वक्त में भी अपनी रोशनी बिखेरता रहेगा।
मदरसा खादिमुल उलूम बागोवाली बझेड़ी आज भी वही पुराना जोश लिए खड़ा है। यह बच्चों को न सिर्फ मजहब की बातें सिखाता है, बल्कि उन्हें आज के दौर में आगे बढ़ने की ताकत भी देता है। यह एक ऐसा दीया है, जो 90 साल से जल रहा है और आने वाले वक्त में भी अपनी रोशनी बिखेरता रहेगा।
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