मौलवी लियाकत अली / Maulvi Liyaqat Ali / भारत के मुस्लिम स्वतंत्रता सेनानी /Indian Muslim Freedom Fighter.
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कल्पना करिए, उस वक्त की विश्व की सबसे बड़ी ताकत ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ जंग लड़ कर अपनी तलवार और तोप की ज़ोर पर 10 दिनों के लिए ही सही इलाहाबाद को ब्रिटिश हुकूमत से स्वतंत्र कराकर यहां अपना जिलाधिकारी और एसडीएम नियुक्त करने वाले मौलाना लियाकत अली कुछ अलग ही रहें होंगे जिन्हें भारतीय इतिहास में भुला दिया गया।
तो कौन थे मौलवी लियाकत अली ? आईए जानते हैं।
मौलवी लियाकत अली का जन्म 05 अक्टूबर 1817 को इलाहाबाद जिले के ही "महगाँव" नाम के एक गांव में हुआ था जो शहर से 30 किमी दूर कानपुर जीटी रोड पर ही स्थित है। सैयद मेहर अली और अमीना बीबी के घर में जन्में मौलवी लियाकत हुसैन अपने वालदैन के इकलौते पुत्र थे। मौलवी लियाकत अली के पिता सैयद मेहर अली के छोटे भाई सैयद दयाम अली ने "चंचल बाई" से शादी की थी जो बनारस में रहने वाले झांसी की रानी लक्ष्मी बाई के पिता "मोरोपंत तांबे" की बहन थीं। यही कारण था कि मौलवी लियाकत अली अक्सर झांसी की रानी लक्ष्मी बाई को छबीली बहन या छोटी बहन के रूप में संबोधित करते थे।
मौलवी लियाकत अली एक अच्छे वक्ता, लेखक और अपने साथियों की देखभाल करने वाले व्यक्ति थे। उन्होंने और उनके साथियों ने हरदोई जिले के सैंडी, बिलग्राम और पाली जैसे विभिन्न स्थानों पर ब्रिटिश सरकार विरोधी अभियानों का सफलतापूर्वक नेतृत्व किया। तत्कालीन जमींदारों और क्षेत्र के अन्य प्रमुख लोगों ने मौलवी को अपना पूरा समर्थन दिया और उन्हें अपने नेता के रूप में स्वीकार किया।
इसी बीच सिपाही विद्रोह मेरठ, दिल्ली और अन्य क्षेत्रों में शुरू हुआ और विद्रोह की गर्मी ने इलाहाबाद को भी घेर लिया। मौलवी और उनके सलाहकारों ने जून 1857 में इलाहाबाद में विद्रोह फैलने से बहुत पहले अपने हमलों को सुनियोजित तरीके से करने की योजना बनाई थी। 06 जून 1858 की रात को 9 बज कर 20 मिनट पर बनारस से आए पुलिस विद्रोहियों ने छठी इन्फैंट्री छावनी के मैस पर हमला कर दिया जिसमें पैदल सेना के जवान भी विद्रोहियों की मदद कर रहे थे। जान बचाकर भाग रहे अंग्रेज उस समय वहीं पर ₹30 लाख छोड़ गए। इन सैनिकों ने अपने ही अधिकारियों को नजदीक से मार गिराया। वह विद्रोह की शुरुआत थी और शहर को अनियंत्रित विद्रोहों की दया पर छोड़ दिया गया जिससे शहर में पूरी तरह से अराजकता का माहौल था।
इलाहाबाद में अनियंत्रित विद्रोहियों और ब्रिटिश सैनिकों द्वारा शहर में अनावश्यक लूटपाट, सार्वजनिक संपत्ति के विनाश और रक्तपात को देखा तो मौलवी लियाकत ने अपने तलवार और अपने प्रमुख तोपची खुदाबख्श के तोप के गोलों के ज़ोर पर 07 जून 1858 को स्थिति पर नियंत्रण कर लिया। उन्होंने अपने नेतृत्व में विद्रोही सिपाहियों का विश्वास जीता, समदाबाद और रसूलपुर के मेवाती और कई ग्राम प्रधान के साथ मिलकर 7 जून 1857 को उन्होंने इलाहाबाद को अंग्रेजों से छीन लिया और अपनी सरकार चलाई।
उन्होंने शहर में कानून और व्यवस्था को लागू किया और दिल्ली के मुगल सम्राट बहादुर शाह जफर के नाम के हरे और सफेद झंडे जिसमें उगता हुआ सूरज दर्शाया गया था के साथ शहर में एक जुलूस निकाला। सिपाहियों और पंडों का नेतृत्व सरदार रामचंद्र ने किया। मुसलमानों की अगुवाई मौलवी लियाकत हुसैन ने की। उनके नेतृत्व में इलाहाबाद की जनता, जिनमें आम मुस्लिम, ब्राह्मण, पंडा और पठान शामिल थे,अंग्रेजों के दमन के विरुद्ध मौलवी से कंधा मिलाकर बहादुर शाह जफर की सत्ता और वैभव को पुनः स्थापित किया।
उन्होंने दो व्यक्तियों सैफुल्ला और सुख राय को चायल परगना के तहसीलदार, दो कोतवाल, एक नायब और दो व्यक्तियों को सेना अधिकारी नियुक्त किया और अंग्रेजों को पूरी तरह से इलाहाबाद से खदेड़ दिया। मौलवी लियाकत अली ने खुसरो बाग को अपना सैन्य परिचालन मुख्यालय बनाया क्योंकि यह इलाहाबाद किले के पास शहर में उपलब्ध एकमात्र गढ़ वाली विशाल जगह थी जिसकी दिवारें किले की तरह ऊंची थीं।
इलाहाबाद में यमुना के किनारे अकबर के बनाए किले में पैंसठ तोपें, चार सौ सिख सैनिकों की एक चौकी और छठी मूल निवासी इन्फैंट्री के अस्सी सैनिक थे। अंग्रेजों के लिए किले का पूर्वी भारत में एक बहुत ही महत्वपूर्ण रणनीतिक स्थान था। खुसरो बाग से उन्होंने उनके विरुद्ध युद्ध चलाया और इलाहाबाद के किले को अपने हाथ में लेने की कोशिश की लेकिन इसे हासिल करने में असफल रहे। मौलवी के चरित्र और बौद्धिकता की अखंडता से हिंदू और मुसलमान दोनों समान रूप से प्रभावित थे और वह इलाहाबाद से अंग्रेजों को खदेड़ कर अपनी सरकार बनाने के बाद और आगे बढ़ने ही वाले थे कि यहीं एक मुसीबत आ गयी।
इलाहाबाद शहर पर नियंत्रण करते ही मौलवी लियाकत अली को खबर मिली कि उनकी बहन रानी लक्ष्मीबाई मुश्किलों में घिर गयीं हैं। उन्होंने अपनी बहन रानी लक्ष्मीबाई की मदद करने के लिए अपने प्रसिद्ध तोपची खुदा बख्श को इलाहाबाद से झांसी की रानी को मदद करने के लिए भेजा जहां सिंधिया की गद्दारी के कारण उन्हें युद्ध में शहादत मिली और खुदाबख्श झांसी की रानी की ओर से लड़ते हुए शहीद हो गये। झांसी की रानी की बुआ चंचल बाई उर्फ़ चंचल बीबी के नाम पर महगांव गांव की दरगाह में आज भी एक मस्जिद और उनकी कब्र है।
खैर मौलवी लियाकत अली की हुकूमत के 10 दिन भी नहीं हुए थे कि, 17 जून सन 1858 को अंग्रेजों ने इलाहाबाद को घेर लिया। इलाहाबाद में गड़बड़ी को रोकने में जनरल हैवलॉक की सहायता के लिए, बनारस से लेफ्टिनेंट कर्नल नील और अधिक बलों के साथ इलाहाबाद किले में पहुंचे। कर्नल नील एक दुर्दांत अंग्रेजी अफसर था , कर्नल नील ने मद्रास फ्यूजलर्स के साथ आधुनिक अस्त्र शस्त्र के सहारे रास्ते भर गांव उजाड़ता भारी तबाही मचाता हुआ इलाहाबाद पहुंचा। और इस कारण जनता में उसकी दहशत ज़ोरों में थी।
इस समय नगर क्षेत्र मौलवी लियाकत अली के पूर्ण नियंत्रण में था। नील ने किले की अपनी तोपों को इलाहाबाद के मुहल्ले कीडगंज और दारागंज के नागरिक क्षेत्रों की दिशा में चलाने का आदेश दिया और इस पूरे रिहायशी इलाके में भगदड़ मच गई और लोग अपने घरों को छोड़कर भागने लगे। क्षेत्र से लोगों के सामूहिक पलायन से नील खुश था। नागरिकों को बचाने के लिए मौलवी लियाकत अली ने अपनी सेना को कीडगंज और दारा गंज क्षेत्रों से हटा लिया।
16 जून को नील ने अपने शक्तिशाली तोपखाने से खुसरो बाग पर तोपों से आक्रमण किया और भीषण लड़ाई हुई। नील ने सफलतापूर्वक खुसरो बाग पर कब्जा कर लिया , इस लड़ाई में सरदार रामचंद्र और उनके साथी अंग्रेजों से लड़ते हुए शहीद हो गये। संघर्ष इतना भीषण था कि चौक स्थित शहर कोतवाली से 500 मीटर दूर स्थित खुसरो बाग आने में अंग्रेजों को सुबह से शाम हो गयी। लड़ाई की भीषणता का अंदाजा इससे लगाईए कि 3 महीने तक 8 गाड़ियां लगाकर सुर्योदय से सुर्यास्त तक लाशों को ढोया जाता रहा।
नील ने मौलवी के नियुक्त तहसीलदारों और एक सिपाही को फाँसी दे दी। लेकिन मौलवी लियाकत अली अंग्रेजों की पहुंच से बाहर थे। इस तरह इलाहाबाद को 10 दिनों के बाद अंग्रेजों ने फिर से हासिल कर लिया। इसी बीच मौलवी लियाकत अली को झांसी की रानी के मुश्किल में घिर जाने की खबर मिली और 17 जून की रात को मौलवी लियाकत हुसैन चुपके से कानपुर के लिए निकल गये। झांसी की रानी लक्ष्मीबाई भी सिंधिया की गद्दारी के कारण शहीद हो गयीं , जिनकी शहादत को सुनकर मौलवी लियाकत अली ग्वालियर भागे और अंतिम संस्कार में छिपकर शामिल रहे।
इधर नील ने गांवों को जलाना शुरू कर दिया और महिला या पुरुष तथा उनकी उम्र की परवाह किए बिना मासूमों को विद्रोह की सज़ा देना शुरू कर दिया। लोगों को पेड़ों से लटका दिया गया। कई छोटे बच्चों को सिर्फ इसलिए फांसी पर लटका दिया गया क्योंकि वे ढोल पीट रहे थे और हाथों में उगते सूर्य का हरा सफेद झंडा लिए परेड कर रहे थे।
इलाहाबाद शहर कोतवाली के पास चौक में खड़े "नीम के सात पेड़ों" पर कुछ ही दिनों में आठ सौ लोगों को फाँसी दे दी गई। इसी वजह से लोगों ने कर्नल नील को "इलाहाबाद का कसाई" नाम दे दिया। पूरा क्षेत्र उनके नियंत्रण में आ गया। इसके बावजूद इलाहाबाद के नाजिम , समदाबाद के मेवातियों और मौलवी लियाकत हुसैन के अन्य साथियों के साथ आजादी की आग जला रहे थे।
ग्वालियर से वापसी पर मौलवी लियाकत अली कानपुर पहुँचे और नाना ढोंडू पंत, जिन्हें नाना साहब के नाम से जाना जाता है, और उनके आदमियों से मुलाकात की और अंग्रेजों के रुपए 30 लाख से बिठुर में नाना जी के साथ आगे की योजनाओं पर चर्चा की और ब्रिटिश हुकूमत से संघर्ष जारी रखने का फैसला किया। उनके इलाहाबाद से जाने के बाद से उनको इलाहाबाद और आस-पास के गाँवों में नील के अत्याचारों की सूचना प्रतिदिन मिल रही थी। मौलवी लियाकत अली से इलाहाबाद में अत्याचार की खबर सुनकर नाना ने बदला लेने का फैसला किया।
कानपुर में नाना की सेना जनरल व्हीलर से भिड़ गयी और जनरल व्हीलर को नाना की सेना के सामने आत्मसमर्पण करना पड़ा। नाना ने उन्हें कानपुर छोड़ने की अनुमति दी और गंगा नदी पार करने के लिए उनके लिए नावों की व्यवस्था की। फिर दुर्भाग्य से 27 जून 1858 को सती चौरा घाट की घटना घटी। बैंक में छिपी बंदूकों ने अंग्रेज पुरुषों और महिलाओं पर गोलियां चलानी शुरू कर दीं, जबकि उन्हें नाना ने इलाहाबाद के लिए सुरक्षित मार्ग का आश्वासन दिया था। नाना, जो इसमें शामिल नहीं थे ब्रिटिश हुकूमत ने इसके लिए नाना को दोषी ठहराया।
दरअसल यह त्रासदी वास्तव में इलाहाबाद में नील के अत्याचारों का परिणाम थी और जिसकी खबर आग की तरह कानपुर तक पहुँची और लोगों ने अंग्रेजों से बदला लेने के लिए इसे अंजाम दिया। काये, मैलेसन और चार्ल्स बॉल जैसे कई अंग्रेजी इतिहासकारों ने इलाहाबाद के नागरिकों की बर्बर हत्या के बारे में लिखा है। हेनरी हैवलॉक 30 जून को इलाहाबाद पहुंचे और कमान संभाली।
मौलवी लियाकत अली दिल्ली आए और बख्त खान से मिले जो उनको बहादुर शाह जफर के सामने ले गए। मौलवी लियाकत अली ने बहादुर शाह जफर को सारा घटनाक्रम समझाया। फिर मौलवी लखनऊ लौट आए। जुलाई 1857 में, फतेहपुर की लड़ाई के बाद, लोगों को सबक सिखाने के लिए हैवलॉक द्वारा सिख सेना को फतेहपुर शहर को जलाने का आदेश दिया गया था। इस कार्य के बाद, सिखों को इलाहाबाद में फिर से नील में शामिल होने का आदेश दिया गया।
मौलवी लियाकत अली ने फिर अपने आदमियों के साथ फतेहपुर-कानपुर रोड पर हैवलॉक को रोकने की कोशिश की, लेकिन इसे हासिल करने में नाकाम रहे। कानपुर में लड़ाई में हारने और नाना के नेपाल भागने के बाद, मौलवी लियाकत अली ने उत्तरी भारत में अपनी गतिविधियों को जारी रखा। कुछ समय बाद उन्होंने भोपाल और सूरत होते हुए दक्षिण-पश्चिम की यात्रा की, वे सूरत से लगभग दस किलोमीटर दूर लाजपुर में रहने लगे।
उन्होंने इस जगह को स्वतंत्रता के लिए ब्रिटिश राज के खिलाफ गतिविधियों का अपना नया केंद्र बनाया। उन्होंने अपना नाम बदला और छद्म नाम ग्रहण किया और अपना निवास स्थान बदल बदल कर मौलवी लियाकत अली पूरे पंद्रह वर्षों तक अंग्रेजी अधिकारियों को चकमा देते रहे और ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ लड़ते रहे। 1872 में, मौलवी लियाकत अली के दो साथियों ने मुखबिरी की और मौलवी लियाकत अली को बॉम्बे रेलवे स्टेशन पर एक ब्रिटिश पुलिस अधिकारी स्टाइल द्वारा गिरफ्तार किया गया।
उन्हें इलाहाबाद लाया गया और जिला एवं सत्र न्यायाधीश की अदालत में मुकदमा चलाया गया। 24 जुलाई 1872 के फैसले में मौलवी लियाकत अली ने ईमानदारी से स्वीकार किया कि उन्होंने ब्रिटिश राज के खिलाफ क्या किया है और इस पर उनको गर्व है। उन्हें अंडमान की जेल मे आजीवन कैद की सज़ा काटने के लिए भेजा गया जहां वह 20 साल अंडमान जेल में अंग्रेजों के ज़ुल्म को सहते हुए 17 मई 1892 को मृत्यु को प्राप्त हो गये।
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