उर्दू भारत में जन्मी भाषा, इसे किसी धर्म से नहीं जोड़ा जा सकता: सुप्रीम कोर्ट ने महाराष्ट्र में उर्दू साइनबोर्ड को दी मंजूरी
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सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को एक ऐतिहासिक फैसले में कहा कि उर्दू भारत में जन्मी भाषा है और इसे किसी एक धर्म से जोड़कर नहीं देखा जा सकता। इस फैसले के साथ ही कोर्ट ने महाराष्ट्र के अकोला जिले के पातुर नगर परिषद के भवन पर उर्दू में साइनबोर्ड लगाने की अनुमति दे दी। यह मामला तब चर्चा में आया जब पातुर की एक पूर्व पार्षद ने उर्दू के उपयोग को चुनौती दी थी, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने उनकी याचिका खारिज कर दी।
जस्टिस सुधांशु धूलिया और जस्टिस के. विनोद चंद्रन की बेंच ने अपने फैसले में कहा, "भाषा किसी समुदाय, क्षेत्र या लोगों की होती है, न कि किसी धर्म की। यह गलत धारणा है कि उर्दू भारत की भाषा नहीं है।" कोर्ट ने स्पष्ट किया कि उर्दू मध्यकालीन अपभ्रंश (शौरसेनी) से विकसित हुई एक इंडो-आर्यन भाषा है, जिसका विकास हिंदू-मुस्लिम सांस्कृतिक समन्वय से हुआ है।
पातुर नगर परिषद में 1956 से ही मराठी के साथ-साथ उर्दू में भी साइनबोर्ड लगाए जा रहे हैं। इस परंपरा को चुनौती देते हुए पूर्व पार्षद वर्षाताई संजय बागड़े ने बॉम्बे हाई कोर्ट में याचिका दायर की थी, लेकिन हाई कोर्ट ने भी उनकी मांग को खारिज कर दिया था। इसके बाद उन्होंने सुप्रीम कोर्ट का रुख किया।
सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि उर्दू का उपयोग "प्रभावी संवाद" के लिए किया जा रहा है और भाषाई विविधता का सम्मान करना चाहिए। कोर्ट ने यह भी जोड़ा कि उर्दू को केवल एक धर्म से जोड़कर देखना गलत है, क्योंकि यह भाषा हिंदुओं और मुसलमानों दोनों के सांस्कृतिक योगदान से बनी है।
इस फैसले को लेकर सोशल मीडिया पर भी खूब चर्चा हो रही है। कुछ लोग इस फैसले को समावेशी बताकर इसकी सराहना कर रहे हैं, तो कुछ ने इस पर सवाल उठाए हैं। एक यूजर ने लिखा, "उर्दू को धर्म से अलग देखना एक अच्छा कदम है, लेकिन क्या यह फैसला अन्य भाषाओं जैसे तमिलनाडु में हिंदी के लिए भी लागू होगा?" वहीं, कुछ लोगों ने इसे "हिंदू-मुस्लिम" विवाद से जोड़कर देखा।
गड़ा टाइम्स की टीम ने इस मामले पर स्थानीय लोगों से बात की। पातुर के एक निवासी मोहम्मद राशिद ने कहा, "हमारे इलाके में उर्दू और मराठी दोनों का चलन है। साइनबोर्ड पर दोनों भाषाओं का होना हमें गर्व महसूस कराता है। यह फैसला हमारी सांस्कृतिक एकता को मजबूत करता है।" वहीं, एक अन्य निवासी रमेश पाटिल ने कहा, "मुझे लगता है कि मराठी ही काफी है, लेकिन अगर कोर्ट ने फैसला दिया है तो हमें इसका सम्मान करना चाहिए।"
यह फैसला न केवल भाषाई विविधता को बढ़ावा देता है, बल्कि यह भी दर्शाता है कि भारत की सांस्कृतिक विरासत को धर्म के चश्मे से नहीं देखा जा सकता। उर्दू, जो कभी उत्तर भारत में हिंदुओं और मुसलमानों दोनों के बीच एक साझा भाषा थी, आज भी अपनी समृद्ध साहित्यिक और सांस्कृतिक परंपरा के लिए जानी जाती है।
आप इस फैसले के बारे में क्या सोचते हैं? अपनी राय हमें कमेंट्स में जरूर बताएं। गड़ा टाइम्स आपके लिए ऐसे ही महत्वपूर्ण मुद्दों पर खबरें लाता रहेगा।
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